जिया

मुक्तक-------
     
शेष रही अभिलाषा का विस्तार किया
जीवन  जिए बिना ही स्वीकार किया
आस जोड़ जीने वाले को ही मान दिया
जाने पहचाने बिना कैसा श्रृंगार किया

 भग्न रही संवेदनाओं को अंगीकार किया
 सावन ने पतझड़ जैसा ही व्यव्हार किया
 आसूँ पी कर जीने वाले किसका दर्द जिया
 मोल - भाव कर जीवन को निस्सार किया

 जलज नैनों से बरसा किसका उद्धार किया
 किस पथ पर चल कर भव् सागर पार किया
 मित्र भाव से छला गया हर्षित क्या हृदय हुआ
 बाधित करते कर्म उनको क्यों स्वीकार किया


आराधना राय "अरु"

Comments

Popular posts from this blog

शहीद

रखा क्या है

नज़्म डर