कविता मैं और तूम
तुम्हें बोलने कि आदत नहीं मैं सब कुछ बोल देती हूँ अंतरमन अपना खोल देती हूँ तूम बंद किताब कि तरह लगते हो चाहूँ भी पढ़ ना पाऊँ ऐसे लगते हो तुम्हारे मूक बोलों को समझ नहीं पाती हूँ मन कि तुम्हारी थाह ना पा कितना पछताती हूँ मैं बातें कह कर भी संवेदन हीन हो जाती हूँ तुम्हारे अस्तल में समुन्दर पाती हूँ तुम्हारी आँखों से जब भाव गहराते है मैं जल कि मीन हो जाती हूँ तूम बिना कहे सब कुछ जान लेते हो मैं नीर बहा कर भी समझ कहाँ पाती हूँ मैं पल में रूठ कर मान जाती हूँ तुम रूठे तो फिर कहां मान पाते हो क्षमा को सिर्फ किताबों में पाया था तुम्हे देखा तो किताबें झूठी लगी दया , क्षमा ,प्रेम सहनशीलता का तूम से सच्चा अर्थ जाना था आराधना राय अरु