भीतर – बाहर है कोलाहल बहता पानी सा हल हल हल छुपा हुआ है कही अंतस में मन के भीतर के विप्लव में आसन नहीं चुप रह जाना चुपके –चुपके विष पी जाना मचा रहा है हाहाकार फिर गलियों के हर एक चप्पे में चीखे गलियाँ और चोबारे क्यों मौन रहे इस क्रदन में आराधना राय
अबके सावन हमको बहुत रुलाएगा बात - बात में तेरी याद दिलाएगा बारिश में जब भीगे भीगे फिरते थे वो बचपन लौट के फिर ना आएगा मन बेचैनी से तुमको फिर ढूंढेगा बांह पकड़ के हमको कौन सिखाएगा बाबा पापा सब नामकरण संक्षिप्त हुए अब रहा नहीं कोई जो हमें हंसाएगा सपन -सलोने सारे सब खत्म हुए खाली रातों में लोरी कौन सुनाएगा अपने पिताजी को समर्पित आज मेरे पिताजी की बरसी पर
प्यार ,इश्क, लगावत का क्या कहिये डूब कर दरिया पार जाने का क्या कहिए उसने निभाया ही नहीं ज़माने का चलन उसकी रहगुज़र से गुजरने का क्या कहिए चाँद तारों का सफर मैंने किया ना कभी उसके बामों दर कि सहर का क्या कहिए प्यार फसाना था उसने निभाया ही नहीं इश्क़ के ऐसे कारोबार का क्या कहिए आराधना राय अरु
हसीन थी के तेरी जुल्फों में उलझी थी जब तलक
ReplyDeleteअब चुभ रही है बूंदें जो मेरा आशियाना बहा गई!