दो धड़ी अतुकांत कविता
वक़्त के दरमियाँ
खड़े रहकर
साँस ले लूँ दो धड़ी
फुरसते मिलती है
किसको जब जिंदगी
हो दो धड़ी
तूम ना मानो
बात मेरी
मन कि चुभन
कह जाएगी
तेरे मेरे मिलने से पहले
धडकने रुक जाएगी
भागते- दौड़ते जिंदगी
के काफ़िले है
कौन किसको देखता है
और जी रहा है दो धड़ी
बात अपनी कह कर
चुप रह जाऊँगी दो धड़ी
गर सफर बाकी रहा तो
मिल लूँगी दो धड़ी
तेरे मेरे बीच की दीवार
भर है दो घडी
आराधना राय "अरु"
बहुत सुंदर
ReplyDeleteदो घड़ी काफी है
अतुकांत कविता लिखना जरूरी नहीं है