अपनी सरज़मी
मैं सिर्फ सदभावना की बात कर रही हूँ युद्ध ना ही हो तो अच्छा-- गोली और जंगली लोगों का कोई मज़हब नहीं----आप युध के मेडल के पीछे छिपा दर्द नहीं देखते है मे मैं देखती हूँ -- और बात है god of honor की मैं उस दिन को बड़ा मानूंगी जिस दिन गोली आतंक और नफरत की वजह से ना चले
यह कविता समर्पित है देश को और चाहती हूँ , गोली ना सरहद के इस पार चले ना उस पार
नफरत रोके-----पता नहीं और कितने पाकिस्तान चाहिए
अपनी सरज़मी पर आशियाना कही होता
सपनों का अपना इक ठिकाना बना होता
छिप कर सय्याद बैठा है अब तक चमन में
जाल फ़िर किसी ने आकर ना बिछाया होता
बाँट ज़मीन अपने ज़मीर को मारा ना होता
नाहक गमों को इस दिल से ना लगाया होता
वो देश था कभी आज विदेश ना बना होता
ये हिन्दू -मुसलमान का झगड़ा ना कही होता
हिन्दुस्तान तू अगर पाकिस्तान ना बना होता
सरहदों का खेल रोज़ यहाँ ना खेला गया होता
भूल गए माँ को नई सरहद को बनाया होता
ज़र, जोरू, औरजमीन जो व्यापार ना बना होता
तोड़ कर दिल बेईमान से रिश्तों से ना बंधा होता
इंसान अगर तू कभी इंसान कही रह गया होता
सब बेच कर बाज़ार की सजावट ना बना होता
दोस्ती , को प्यार नही अब अदावत बनाया होता
माँ सरहद पार भी गोलियों के बीच मरती ना होती
ईधर भी माँ -बाप के आखों में आँसू ना भरे होते
काश , आतंक किसी की पहचान नहीं यूँ होता
कोई धर्म डर फेलाने का सितमगार ना होता
आराधना राय "अरु"
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