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Showing posts from July, 2016

डाली

हरी डाल सावन में गीत गाती थी आसंमा को देख मुस्कुराती थी झूम उठती थी हवा के हिलोर से मस्त हो सब को भाती थी धुप में बाहें फैला तकती थी आकाश सुमधुर सपने नभ को सुनती थी। मन की धरती हरिया जाती थी। पात -पात पे मुस्कान आती थी। इक दिन सूखी डाल को देख रो पड़ी व्याकुल हिय से कॉप कर चुप रही किसने अनगिनत प्रहार डाल पे किये थे देख कर स्वयं वृक्ष भी रो पड़े थे। मन चोट करने वाले को भुला नहीं पाता कुठारा घात सह के कुछ कर नहीं पाता निष्प्राण हो डाल ने जीना सीख लिया था रह- रह के विधाता से पीड  कहना सीख लिया था। एक दिन फिर कोई आया मगर पेड़ के पास कुल्हाडी रख बैठ गया, इतने  में सर्प आ पहुंचा। वहाँ , डाल ने आवाज़ ईश्वर को लगाई सुनते हो तुम बेजुबान की भी पर इतनी नहीं निष्टुर किसी के प्राण लूँ हो सके तो कुछ और सजा देना इसे मेरी तरह जीते जी निष्प्राण कर देना इसे सर्प। ने सुना दंश दे मुस्कुरा गया। आज इसमें प्राण है मर ना पायेगा अभी। दुसरो पे घात जो करते दिन रात है, एक दिन  ईश्वर भी करते उन्ही पे प्रहार है। आराधना राय अरु

सावन

बूंद बूंद बन कर अम्बर से सावन की झड़ी लगी है मन के ताने बाने पे किस की नजर पड़ी है हरी वसुंधरा जल-मग्न हो कर क्या व्यथित हुई है तृषित चातक को स्वाति की बूंद कितनी मिल पाई है अम्बर के हिय पे सर रख के नीर बहा कर आई है सावन में किस के मन में नव हिलोर सी मचा आई है रीती रह न जाये सखि बरखा की ऋतु देख आई है आराधना राय अरु

चली जाती है

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साभार गुगल रात में आ के चली जाती है दिन उजालों संग बिताती है दूर से आ कर मुझे बुलाती है तेरी आवाज़ मुझे भरमाती है ज़िन्दगी रंगों में ढल के आती है मुझे क्यों रात दिन ये सताती है रूप कि चादर सलोनी ओढ कर कितने रूप दिखा कर तू जाती है जब मिली धुप सी मिली मुझसे छाँव कि रंगीनी क्या दिखाती है ज़िन्दगी पास रह कर तू जाती है कैसे इल्जाम लगा के तू रुलाती है आराधना राय "अरु"

बात करती हूँ

 मैं हिन्द की बात करती  हूँ  मुस्लिम की ना हिन्दू बात मैं इन्सान कि इंसानियत की बात हँस कर  तुमसे करती हूँ पेट जला कर धर्म क्या बनाऊँ धर्म पे आस्था मैं भी रखती हूँ कृष्ण को ये युद्ध कब प्यारा था राधा नाम ले प्रेम को पुकारा था प्रेम का आधार मैं क्या बतलाऊँ इन्सान बन इंसान का मन पाऊँ रक्त- पीती हूँ दुराचारियों का मैं काली - दुर्गा हो के बात कर जाऊँ आराधना राय "अरु"

बदरा बरसे

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साभार गुगल रिम- झिम बदरा बरसे मन ही मन हम तरसे श्याम भई ऋतू काली अखियाँ भरी है जल से घर अंगना सब बिछडा फूटे भाग्य से सब कलसे रैना थी मनवाली मनकी मिले नहीं साथी मन के आग लगता बदरा आया मिले नहीं पिय मोरे कलसे आराधना राय "अरु"

मेरी सांसों में

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साभार गुगल मेरी सांसों में मेरी सांसों में कविता ------------------------------------ तुम बसें हो मेरी सांसों में  मेरी धड़कन में तुम समाते हो  मैं थरथरा रही हूँ लों की तरह तुम मेरे साथ -साथ जलते हो गुम रह कर देख ली दुनियाँ तुम अपनी साँस से महकते हो तेरे संग रह कर पा लिया है तुझे तुम मेरे रोम- रोम में बसते हो मेरी नज़रों में धुंध सी रहती है तुम किसी धूप सा मुस्कुराते हो तेरे कदमों में ज़माना पड़ा "अरु"तुम साया बन कर आते हो आराधना राय "अरु"

आस्था के प्रश्न

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ईष्या द्वेष के मारों का हाल ना पूछे स्वार्थ हुआ मजहब कुछ हाल ना पूछे -------------------------------------------------- स्वार्थ से हुए अंधे धृतराष्ट्र दुःशासन यहाँ सभी कर्म बन गया किसका कुरुक्षेत्र का रणक्षेत्र तभी आस्था के प्रश्न पर सब यहाँ मारीच से निकले ईश्वर जिनके लिए छलिया कपटी धूर्त निकले मंदिर , मस्जिद, गिरजा बना कर पूजते है सभी वक़्त आने पूजा का घर जला जाता है हर कोई आज पूज लो भगवान जितने बना बैठे हर कही समय कि धारा में वो भी बह जायेगे कहीं ना कहीं बिजलियों के बीच रहता है जैसे हर यहाँ हर कोई गरीब का साया बिना बात छीन लेता है हर कोई ईशु, मीरा, सुकरात ज्ञानेश्वर बिष पी जी गए सभी मसीहा आ कर दुनियाँ में रो कर क्या गए यहोँ सभी भगवान को परख डालोगे परख नालियों में तूम सभी स्वार्थ के क्या कहने स्वयं को विधाता बुलाते हो सभी आराधना राय "अरु"

नवगीत--- हवा हूँ

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साभार गुगल बह रही हूँ हवा हूँ मैं खुल के बागों में बहार दे हल्की सी थपकी दी है सावले मुखड़े को संवार दे बरस ऐसे कि भीग जाए मेरा मन और तेरी चूनरी आस जन्मों कि हो पूरी फूल - फूल पे निखार दे बह रही हूँ हवा हूँ मैं  रूप -रंग  धरा संवार ले शहर , जंगल , गाँव का भेद नहीं करती हवा हूँ मस्त, अल्हड, चिर योवना जीवन दे मुस्कुराती हूँ हवा हूँ, हवा बह रही हूँ मैं बहल - कर बहलाती हूँ आराधना राय "अरु"

समय

एक वृत में सभी को समेटे दाए से बाए पेंडुलम हिलाते समय अपने मोल को जता के चौबीस कोणों में विभाजित कर सब को चुपचाप बाँध  ढो रहा है पल - पल में अपनी अहमियत जता नाद से सुर  बना के कहता है आदमी तू आदमी के साथ कैसे  अभी तक जिंदा है मशीन है सभी सुबह से शाम काम करते  है कहते है मन तेरा अभी तक परिंदा है ईष्या द्वेश में हारी सब कि जिंदगिया दुसरे के दुख से सब ही आहत है शिकायतों का बाज़ार समेटे सब अपनी अपनी मन कि गाँठ को सम्हाल कर बैठे है आदमी समझता रहे खुद को खुदा हर शय को समय ने बाँध समय हुआ  "अरु"सब से ही बड़ा आराधना राय "अरु"

पहचान हुई

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2----- कविता मेरे दुख से तेरी  ही पहचान हुई मन कि बातों कि शुरुआत हुई लगा सालने मुझे आकाश नया मेरे संसार कि कैसी यह बात हुई रात  मुझे से देख के खामोश हुई शोर  मचा के पवन  परेशान  हुई चूल्हे कि जली आग धौकनी  हुई मुँह फाड़े देख रही व्याकुल आँखे चूल्हे कि रोटी जल कर खाक हुई भूखे पेट पे  अत्याचार कि रात हुई गीत लिखूं कैसे किस को बता मुझे घर बात जब चोपालों में जा आम हुई हँसी चन्दा कि जैसे मन्द सी ही हुई आँख के आँसूं पीने कि ना बात हुई चुप रह कर दुख से  तेरी पहचान हुई मेरा दुख जब तेरा दुख बन नुस्काया समझ ले उस दिन तुझ से पहचान हुई मन मुदित हुआ कह कर क्या बात हुई आराधना राय "अरु"