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नज़्म डर

गुलो - गुलज़ार की बातो से डर लगता है अब तो तेरे आने से भी डर लगता है वो जो रोनके बढ़ा रहे थे महफ़िल की उनकी रुसवाइयों से भी डर लगता है शाम थी शमा थी मय औ मीना भी बस उसे लब से लगाने से डर लगता है शज़र जो मेरे सर पर कल सरे शब रहा उस के कट जाने का भी डर लगता है आराधना राय

रोज़

रोज़ लगते है मेले मेरे दर पर  तेरी यादों के रोज़ अपने हाथो से कोई  तस्वीर पोछ देती हूँ रोज़ बता कर अश्क आखों से लुढकते है रोज़ सुबह मेरी पेशानी  पर महसूस करती हूँ रोज़ तूम को देख कर अनजान बनती हूँ रोज़ थोडा थोडा तूम पे रोज़ मरती हूँ तेरी यादे है तूम भी हो फिर भी तुम्हारे बिन यूँ ही जीती हूँ

अतुकांत कविता

तुमने लिख कर जो छोड़े है शब्द आस पास मेरे कही वो मेरी दिल की भट्टी में तप गए  के सुनहरे रंग में बिखर रहा था जो वजूद  उस से नाता जोड़ बैठी हूँ शब्दों से रिश्ता अपना टूटते दिल को थामने की हिम्मत  शब्दों ने  दी है कब से बैठी हूँ कुछ तूम फिर बोलो जानती हूँ नहीं बोल पाओगे तूम तुम्हारी शक्सियत में दिल में लिए बैठी हूँ चन्द शब्दों को नहीं पूरी ज़िन्दगी संभाल बैठी हूँ आराधना राय अरु