Posts

Showing posts from March, 2016

तेरी निगाहें

रोज़ आ कर बहला जाती है तेरी अनगिनत खताए करती है ना जाने कितनी चुगलियाँ तेरी ख़ामोश निगाहे गिर पडूँ तो उठा लेती है अक्सर तेरी दो पसरी हुई बांहें माँग लेता हूँ खुदा से जीने की कुछ हसीन सी राहें कुछ नहीं कहती बातें करती है बहुत चुपचाप तेरी निगाहें आराधना राय "अरु"

नव गीत

Image
गरमी कि ऋतु अलसाई चली आई अब ना सुहाए  काज़ल मोहे हाय पसीने से तर पसीजे से जाए बिंदी मेरी बही चली जाए ग्रीषम ऋतु मोहे ना सखी भाए धरती ने बदला रुख अपना हाय - हाय शर्बत ,ना लस्सी जी कहीं ना लग पाए सूरज से आँख मिलाना नहीं भाए सूखी धरती का दुःख अखियन देख नहीं पाए कोयल कि कुक चैन दे जाए गरमी बातें चांदनी में नहा जाए आराधना राय "अरु"

जीवन सजाया है

तिनकों को जोड़ कर घरोंदा बनाया है इक उम्र रहन रख  के जीवन सजाया है चाँद तारों से माँग  अपनी क्या सजती घर अपना हर दिन उम्मीदों से बसाया है तोड़ कर अपनी हर ज़िद्द किसे पता  मैंने अपना दिल हर दिन  युहीं नहीं जलाया है जिंदगी कट गई चारदिवारी में घुटकर ही उम्र का  हिस्सा गुमशुदा नाकाम पाया है मांगते भला सब से क्या हम अपने लिए  सुख देकर  सदा हमने बस दुःख पाया है सही गलत देखते पूरी जिंदगी  गुज़र गई सभी ने "अरु"  तुझे  बार बार आज़माया है आराधना राय "अरु"

रंग

Image
सात रंग में रंग के दीन्ही धानी. केसर,नीली, पीली रंग दीन्हीं मोरी चुनरिया हर रंग में मोहे रंग लीन्ही सुध- बुध म्हारी सब लीन्ही जग से अनजान कर दीन्ही श्यामा तोरी प्रीत रंग साँचा हिया  बरबस बस में कीन्हों छाड़ चूकी सगरी ही नगरिया डगर पिया की चल ही  दीन्ही   जागी अखियन रात को रोती सारा जग भया मोरा परदेसी आराधना राय अरु

होली

बिरज में धूम मचायो कान्हा रंग अबीर गुलाल उड़े रे ग्वाला प्रीत बसी  बिरज कि गलियन  सखी संग खेली होली सब बाला होली में धूम मचायो रे कान्हा  मारे हँस के रस कि पिचकारी  सुन ली जी भर के मुख से गारी  लाज़ अखियन में मधु सी धोले  तीखी   बतियन कि लगे कटारी   होली में धूम मचायो रे कान्हा राधा है गोरी कृष्णा भये काला पी ली राधा संग मीरा ने हाला नाचे नर -नारी नाम संग बिहारी होली में गाये बजाए सब ही बाला आराधना राय अरु

कड़ी धुप अतुन्कांत

कड़ी धुप में चलते चलते साये का पता नहीं  चला मजबूरियों ने सीख लिया सामने तेरे झुक कर चलाना सुबह के बाद शाम और रात है पता इसका है पर मुझे अभी है मिलों इसी तरह धुप में जलना आराधना राय अरु

नवगीत--- चलता चल

 चलता चल, माझी  चलता चल, माझी  डगमग डोले नैइया   इसमें चलता चल  लहर पे लहराती  नदी है गहराती सुनाए क्या राग रागी मस्त हो पी हाला रात भर है जागी लहरों की धार देख , तू चला चल मन कि तान पे हंसतीपल दो पल राग सुना हर रंग का मन की बस्ती है,माझी कहे मेरी बीती उमरिया चलता चल चलता चल, माझी चलता चल आराधना राय "अरु" संस्कृति व लोकतत्त्व का समावेश हो। २. तुकान्त की जगह लयात्मकता को प्रमुखता दें। ३. नए प्रतीक व नए बिम्बों का प्रयोग करें। ४. दृष्टिकोण वैज्ञानिकता लिए हो। ५. सकारात्मक सोच हो। ६. बात कहने का ढंग कुछ नया हो और जो कुछ कहें उसे प्रभावशाली ढंग से कहें। ७. शब्द-भंडार जितना अधिक होगा नवगीत उतना अच्छा लिख सकेंगे। ८. नवगीत को छन्द के बंधन से मुक्त रखा गया है परंतु लयात्मकता की पायल उसका शृंगार है, इसलिए लय को अवश्य ध्यान में रखकर लिखे और उस लय का पूरे नवगीत में निर्वाह करें। ९. नवगीत लिखने के लिए यह बहुत आवश्यक है कि  प्रकृति का सूक्ष्मता के साथ निरीक्षण करें और जब स्वयं को प्रकृति का एक अंग मान लेगें तो लिखना सहज हो जाएगा।

कौन है

सच को अब यहाँ सुनता कौन है   कहूँ कि ना कहूँ इंसान कौन है   अपने स्वार्थो के हुए सब धनी  दूसरों के लिए सोचता कौन हैं बंद हो जाते है जब दरवाज़े सभी खिड़कियाँ खोल देखता कौन है सुन रहा है वो दूर से आवाजे सभी देखना है बेआवाज़ हो बोलता कौन है बोल उठेगी दसों दिशाए अब सभी टूटे पत्तों के मानिद उड़ जाओगे स्वार्थ के दलदल में फसें हो अभी  समय-असमय सारे  मारे जाओगे नादानियाँ दिलाती अगर  खौफ है रो उठा  दिल दुःख से तो  मौत है बददुआ बन  बरस जाएगी कभी आसमां से छुप कर देखता कौन है आराधना राय  "अरु"

नव -गीत

पतझड़ ------------------ नई कोपलों के आने से पहले पीले पत्ते झड जाते है...... दूर शाख से होते- होते हँस कर बात  सुनाते है....... शाश्वत रहा ना जग में कोई यौवन के दिन ढल जाते है ......... कोमल कोपल लहरा  कर बोली जीवन का राग़ सुनाते है .... पीले हो कर भी स्वर्णिम  आभा बिखराते है............. ....... दे जाते पीछे एक धरोहर जिन पे नव कोपल इतराते है चाल चले समय कि धारा जिसमें नव कोपल कुम्हलाते है पीले पत्ते हो टूटे शाख से क्या कम वेदना दे जाते है.................... कोंपल जब मुरझाया होगा तरु ने अंत अपना पाया होगा पीले पात झर आगमन नव दे जाते है पर उनका क्या जो जीवन जीने से पहले मर जाते है............................... पतझड़ में पत्ते पीले पड़ जाते है कोंपल मुरझा कर अंत समझाते है आना और जाना कर्म हुआ दुःख  से सुख भी भंग हुआ कर्तव्य का बोध कराते है हँस कर जो जीवन दे जाते है आराधना राय "अरु"

मन कि प्याली

महक रही डाली डाली फूलों कि क्यारी क्यारी आज श्रृंगार कर लेने दो  बहकी  मन कि प्याली छलना कौन आने वाली अभी चल बन मतवाली अलके संवार कर  विहार सज़ा  रागों से प्राण आली ऋतु आ कर जाती चली  पी की ड्योरी बुला रही  भावों का हाला पाएगा  प्रियतमा आ ले जाएगी आराधना राय "अरु"

शब्द

बोलते है शब्द  सुनते है शब्द प्यार है शब्द ताने है शब्द तेरे उलहाने देते है शब्द बिना बात लड़ा देते है शब्द बिछड़ों को मिला देते है शब्द

तिरपाल सा बिछोना है

एक नव गीत का प्रयास ------------------------------------- जीवन क्या तिरपाल सा बिछोना है आंसुओ से धो कर पोछ भिगोना है आशाए क्यों सजो कर उससे रखू मैं  अपने हाथों से सब हीस्वयं सज़ोना है आड़ी तिरछी लकीरें क्या खिलौना है आए थे इसलिए क्या हँस के रोना है पराई प्रीत क्या कहूँ तुझ से सबकी मैं आज जो है वो कल कहाँ अब होना है दूर से गाँव ,बस्ती सब अच्छी लगती है गुनगुनाते हुए शहर की हस्ती लगती है रात को देख कर डराने लगा फिर मुझे उनकी बातें है कहाँ वो सच्ची लगती है आराधना राय "अरु"

मौन रही

प्रीत की बाती रात भर जलती रही कह ना सकी बात मन की मौन रही स्वपन निर्झर बहे आँखों से भी बहे संवेदना प्रेम की निशब्द कहती रही आये ना क्यू सजन राह देखती  रही बेन सहे प्रखर अग्नि सी दहकती रही बोल उठते  नयन पीड किस बात की चन्द्र भी मौन है निशा भी मौन ही रही मौन पाया घना मन शब्द सुनती रही समीर मंद हँस दिया शमा कहती रही प्रीत की बाती थी वो जल गई जल गई  सजन फिर पूछ ना वो क्या कहती रही आराधना राय "अरु"